रविवार, 6 मई 2007

कविता चर्चा - सूरजमुखी और 2000 पन्ने.

कविता कोश वालों ने बताया

कविता कोश में उपलब्ध पन्नों की संख्या अब दो हज़ार के पार पहुँच गयी है। अपनी स्थापना के एक साल के भीतर ही कोश ने यह संख्या छू ली -इससे यह स्पष्ट है कि आप सभी लोगो के सहयोग से कविता कोश विकि अब दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करेगा। हालही में कोश मे माखनलाल चतुर्वेदी, नागार्जुन और अशोक चक्रधर की नई रचनाएँ जोडी़

लावण्या जी ने सूरजमुखी के फूल के माध्यम से कुछ कहना चाहा . कुछ अंश

ओ,सूरजमुखी के फूल,
तुमने कितने देखे पतझड?
कितने सावन? कितने वसँत ?कितने चमन खिलाये तुमने?
कितने सीँचे कहो, मधुवन?
धूल उडाती राहोँ मेँ,चले क्या?
पगडँडीयोँ से गुजरे थे क्या तुम?
सुनहरी धूप, खिली है आज,
बीती बातोँ मेँ बीत गई रात,
अब और बदा क्या जीवन मेँ?


डा. रमा द्विवेदी की एक कविता आयी. घर क्या-क्या नहीं होता?. कुछ अंश

घर सिर छिपाने के लिए भी होते हैं
घर रिश्ते बनाने के लिए भी होते हैं।
घर क्या-क्या नहीं होता?
घर ज़िन्दगी जलानें के लिए भी होते हैं।


हरिराम जी ने प्रतिक्रिया दी

बिना घरवाली के घर नहीं, सिर्फ मकान होता है।
बिना आत्मा के शवों से भरा श्मसान होता है।
यदि घरवाली सही, सुलक्षणी है घर स्वर्ग बना देती है।
यदि वही वैसी है तो सारे घर को घोर रौरव बना देती है।


लेकिन रमा जी सहमत नहीं दिखती. वो कहती हैं . हरीराम जी, घर सिर्फ घरवाली से ही नहीं बनता इसमें घरवाला और अन्य लोग भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

राकेश जी के लिये कविता लिखना उतना ही आसान है जितना मेरे लिये सोना और सिर्फ सोना .

उनके मुक्तक महोत्सव का एक अंश

आप नजदीक मेरे हुए इस तरह, मेरा अस्तित्व भी आप में खो गया
स्वप्न निकला मेरी आँख की कोर से और जा आपके नैन में सो गया
मेरा चेतन अचेतन हुआ आपका, साँस का धड़कनों का समन्वय हुआ
मेरा अधिकार मुझ पर न कुछ भी रहा,जो भी था आज वह आपका हो गया


समीर लाल जी बोले


रुक जाता है मगर फिर से आता है
नया नया सा इक माहोल बनाता है
हैं हर पल अगली कड़ी की राह तकते
मुक्तक महोत्सव हमें बहुत भाता है


राकेश जी अपने गीतकलश में लिखते हैं .

चारदीवारियों में सिमट रह गईं
आज तक कितनी गाथायें हैं प्रेम की
और कितनी लिखी जा रहीं भूमिका
बात करते हुए बस कुशल क्षेम की
कितनी संयोगितायें हुईं आतुरा
अपने चौहान की हों वे वामासिनी
शीरियां कितनी बेचैन हैं बन सकें
अपने फ़रहाद के होंठ की रागिनी


राजीव रंजन जी अच्छी कविता तो करते ही हैं साथ ही उनकी कविता कोई चोरी ना हो इसलिये राईट क्लिक को डिसेबल करके भी रखते है . फिर भी ये हम जैसे आई टी के लोगों के लिये यहाँ अंश को कॉपी ना करने का कारण नहीं बन सकता (जैसा कभी चिट्ठा चर्चा में किसी ने कहा था) . उनकी कविता " थोडा नमक था…" का एक अंश देखिये .

नेता जी गुरगुराये, माईकों के बीच मुस्कुराये
पिछले साल सौ में से सैंतालीस मौतें मलेरिया से
तिरालिस डाईरिया से, चार कैंसर से, छ: निमोनिया से..
सरकारी आँकडों की गवाही है
कीटाणुओं तक के पेट भरे हैं
आदमी की क्या दुहाई है?
सरकारी योजनाओं में हर हाँथ कमाई है,
निकम्मे हैं, इसी लिये नंगाई है..
फसले झुलसती हैं, मुआवजा मिलता है
दुर्घटना, बीमारी या बेरोजगारी सबके हैं भत्ते
थुलथुल गालों के बीच मूँछें मुस्कुरायीं


कविता अच्छी थी. सटीक व्यंग्य था इसिलिये 18 कॉमेंटस भी आये . पूरी कविता आप भी पढ़ें और आनन्द लें.

मोहिन्दर कुमार जी की एक अच्छी कविता आई.कुछ अंश .यदि आप सोच रहे हों कि अम्बा कौन थी/है तो पूरी कविता भी पढ़ लें क्योकि इसके साथ अम्बा की कहानी भी है.

यदि मैँ न होती तो क्या कोई
रोक पाता गति भीष्म की ?

क्या सबल था गाँडीव अर्जुन का
या इस योग्य गदा बाहुबली भीम की ?

क्या होता कृष्ण के सारे प्रयत्नोँ का
क्या सत्य पताका फिर लहराती ?

क्या रणवीरोँ का रक्त भार
पाँडव कुल कभी चुका पाता ?

क्या युद्धिष्टिर के कोमल उदगारोँ
ने यह युद्ध जीत लिया होता ?

जिसने पाया न कोई प्रतिउत्तर
हाँ मैँ वही अनुतरित अम्बा हूँ


रंजू जी ने कुछ माहोल को प्यार मय बनाते हुए कहा .

देख के रोनक-ए -बहार फ़िज़ा में महकती सी ख़ुश्बू
वो तेरा प्यार से मेरे लबो को चूमना याद आया

देखा जो सुरमई शाम का ढलता आँचल
मुझे तेरी बाहों में अपना सिमाटना याद आया


मोहिन्दर कुमार जी ने अपनी प्रतिक्रिया कुछ ऎसे दी.

निकले थे घर से अपनी प्यास बुझाने के लिए
ले के किसी समुंदर का पता
पर कभी उसके साहिल तक को छू भी ना पाए
हाथ में आई सिर्फ़ रेत मेरे
और लबो पर आज तक है अनबुझी किसी प्यास के साये


अनूप मुखर्जी की दो बांग्ला कविताओं का बांग्ला से अनुवाद किया प्रियंकर जी ने .

"प्रणाम करो रात्रि को

यही शुभ है

प्रणाम करो अंधकार को

यही आवरण है

प्रणाम करो अश्रु को

यही स्वेद है

प्रणाम करो मिट्टी को

यही देह है

प्रणाम करो जीवन को

यही आसक्ति है

प्रणाम करो मृत्यु को

यही आरम्भ है…….."

प्रमोद जी कहीं कहीं और कभी कभी तो बोलते हैं लेकिन जब भी बोलते है तो धाकड़ बोलते हैं .

वे बोले .

" गोइंठे में पककर तैयार हुआ चोखा है.. अनोखा है.."

उधर चोखा बन रहा है इधर गीतकार बता रहे हैं कली को कैसे उमर मिले

" भीड़ भीड़ बस भीड़ हर तरफ़ चेहरा कोई नहीं है
हर पग है गतिमान निरन्तर, ठहरा कोई नहीं है
सिसके मानव की मानवता, खड़ी बगल में पथ के
सुनता नहीं कोई भी सिसकी,बहरा कोई नहीं है "

इसे पढ़ Henry Davies की एक कविता याद आ गयी.

What is this life if, full of care,
We have no time to stand and stare.

No time to stand beneath the boughs
And stare as long as sheep or cows.


शब्दों के पड़्ताल करते करते काकेश जी भी कुछ दोहे लिख गये.

‘सोना’ दूभर हो गया , अब सपनों के संग
‘सोना’ चांदी बन गये , जब दहेज के अंग
‘आम’ हो गये ‘आम’ अब , ये गरमी का रूप
तरबूजे तर कर गये , निकली जब जब धूप
शब्द रहे सीधे सादे, अर्थ हो गये गूढ़
‘भाव’ बढ़ गये भीड़ के,‘भाव’ ढूंढते मूढ़


अनूप जी दीप्ति मिश्र की कविता और गजल ले के आये .

एक अंश आप भी पढिये ..पूरी कविता और गजल चिट्ठे पर पढ़ें.

अपूर्ण

हे सर्वज्ञाता, सर्वव्यापी, सार्वभौम !
क्या सच में तुम सम्पूर्ण हो ?
हाँ कहते हो तो सुनो --
सकल ब्रह्माण्ड में
यदि कोई सर्वाधिक अपूर्ण है
तो वह तुम हो ।
होकर भी नहीं हो तुम।
बहुत कुछ शेष है अभी,
बहुत कुछ होना है जो घटित होना है।
उसके बाद ही तुम्हें सम्पूर्ण होना है।


रंजू जी एक कविता बहुत हिट रही . 34 कॉमेंट्स मिले साहब . ऎक कविता पर इतने हिट्स !! आप भी पढ़ें

तलाश ***

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं
पतझड़ों में हम सावन की राह तक़ते हैं
अनसुनी चीखों का शोर हैं यहाँ हर तरफ़
गुँगे स्वरों से नगमे सुनने की बात करते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं .....

बाँट गयी है यह ज़िंदगी यहाँ कई टुकड़ों में
टूटते सपनों में,अनचाहे से रिश्तों में
अजनबी लगते हैं सब चेहरे यहाँ पर
हम इन में अपनों की तलाश करते हैं

जाने लोग यहाँ क्या-क्या तलाश करते हैं .....


अरुणिमा जी कहती हैं अब न चाहत रात की और अच्छा कहती हैं .


हम मरुस्थल की जमीं से , आन में दरके बहुत

बादलों से भीख पर मांगी नहीं बरसात की

आँज कर घनश्याम हमने नैन में अब रख लिये

अब न सुरमे की , न काजल की न चाहत रात की

ढूँढ़ते बाज़ार में पीतल मुलम्मा जो चढ़ा

जब गंवा दीं स्वर्ण की जो चूड़ियां थी हाथ की


मोहिन्दर जी की एक और कविता आयी . हकीकत की जमीँ

क्या बिगडता ज़माने का गर कुछ ख्वाव मेरे भी बर आये होते
और प्यार मेँ तुमने यह् तेज लफ्जोँ के नश्तर न चुभाये होते
वक्ते-पेमाइश उस शक्स का कद मेरे कद से पेशतर निकला
काश जजबात मेँ उसके पैर न मैने अपने काँधे पर टिकाये होते


अंत में एक कविता सृजन शिल्पी जी के चिट्ठे से ये कविता उन्होंने अनुजा शुक्ला से लेकर छापी है. साथ में थोड़ी भुमिका भी है .

एक तपस्या से बढ़कर थे भीष्म तुम्हारे आगे
बांधे थे तुमने देवव्रत जो वचनों के धागे

पितामह क्या तुम्हें कुछ मिल सका है?
मिला है श्राप-सा वरदान क्या है?

जन्म दे श्राप-सा परित्यक्त करके
सकल जीवन यों ही अभिशप्त करके

अनल के मध्य जिसने रख दिया है,
तुम्हारी मातृ का ये स्नेह क्या है?

पिता को कुछ क्षणों का सुख दिलाकर
कि यों वनवास क्योंकर ले लिया है?

शपथ में एक बंध करके रहे तुम
तुम्हें संसार का सुख क्या मिला है?


कैसी लगी आपको मेरी ये पसंद... टिप्पणीयों के माध्यम से .

(एक बार फिर बता दूं यहाँ पर मैं सारे चिट्ठों को समेटने का प्रयास नहीं करता वरन उन सभी चिट्ठों को विषयवार रखता हूँ जो मैने पढ़े और मुझे अच्छे लगे.लेकिन कई बार बहुत से पढ़े चिट्ठों की समीक्षा/चर्चा समयाभाव के कारण नहीं हो पाती)

9 टिप्‍पणियां:

ePandit ने कहा…

काकेश जी आपके ब्लॉग का दायां साइडबार नीचे खिसक रहा है। Main Wrapper की width जरा कम कीजिए। सेंटर कॉलम और दोनों साइडबारों की width कुल width से कम होनी चाहिए नहीं तो साइडबार खिसक कर नीचे चला जाता है।

काकेश ने कहा…

धन्यवाद श्रीश जी .

ठीक कर दिया है अब शायद ठीक हो गया होगा . मेरे ब्राउजर में तो पहले भी ठीक ही आ रहा था.

ePandit ने कहा…

हाँ जी अब सही हो गया। :)

ePandit ने कहा…

हम्म तो नारद पर आ ही गए, बहुत अच्छा। उम्मीद है अब ये काम जारी रखेंगे और पाठक भी बढ़ेंगे।

अभय तिवारी ने कहा…

बधाई हो काकेश जी . अच्छा प्रयास है.. मैंने सरसरी तौर पर पढ़ा है.. क्योंकि इस बार की चर्चा कविताओ पर है..(कविताओ से थोड़ा भागता हूँ) और पिछली चर्चाओ वाले मुद्दों में उतरने का अभी मन नहीं.. आशा है आप इसे और बेहतर बना सकेंगे..

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत अच्छा लगा यहाँ पर सबके बारे में पढ़ना

यह मोहिंदेर जी ने सिर्फ़ मेरी बात कही है :)

निकले थे घर से अपनी प्यास बुझाने के लिए
ले के किसी समुंदर का पता
पर कभी उसके साहिल तक को छू भी ना पाए
हाथ में आई सिर्फ़ रेत मेरे
और लबो पर आज तक है अनबुझी किसी प्यास के साये :)

ranju

Sanjeet Tripathi ने कहा…

काकेश भाई यह आपने सही किया कि अपनी पसंद के चिट्ठों की चर्चा करने के लिए एक अलग से कोना ही बना लिया।

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

लेखनी की धार इतनी सूक्ष्म है कहना पड़ेगा
हाँ क्षितिज के पार कुछ संभावनायें और भी हैं
छन्द के फ़ैलाव को मनके बना कर जो पिरोयें
और सूरज की तरह जो जगमगायें और भी हैं

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

काकेश जी
नमस्ते !
सूरजमुखी के साथ मेरा नाम देखकर सुखद आस्चर्य हुआ !
मेरी कविता को चिठ्ठा चर्चा मेँ उपस्थित करवाने का शुक्रिया !
स - स्नेह,
लावण्या