सोमवार, 30 अप्रैल 2007

चिट्ठाजगत की चिंताऎं...

जब ये चिट्ठा प्रारम्भ किया था तो सोचा था इसके बारे में किसी को नहीं बताऊंगा .लेकिन कुछ मित्र पहुंच ही गये और फिर सुझाव भी दे डाले कि इसे नारद में पंजीकृत करा लें. हाँलाकि अभी भी इसे नारद पर पंजीकृत नहीं कराया है . भविष्य का पता नहीं . एक मित्र ने ,जो कि पुराने वरिष्ठ चिट्ठाकार भी हैं, ने सुझाया कि आप क्या और क्यों करना चाहते हैं उसे एक पोस्ट में स्पष्ट कर दें . इसिलिये थोडा सा स्पष्टीकरण देता चलूं .

कई बार ऎसा होता है कि एक ही विषय पर कई चिट्ठाकार अपने अपने मत रखते हैं . कुछ नयी पोस्ट लिखते हैं और कुछ टिप्पणीयों के माध्यम से ये काम करते है . सामान्यत: एक पाठक किसी पोस्ट को एक बार पढ़कर और उस पर टिपिया कर शांत हो जाता है और फिर उस पोस्ट को नहीं पढ़ता इसलिये उसे यह पता नहीं रहता कि उस पोस्ट पर किसी और ने क्या कहा. कई बार टिप्पणीयों में भी अच्छी चर्चा हो जाती है. इसलिये फिर कोई संवाद जैसी स्थिति नहीं बन पाती . अपने इस प्रयास में मैं इसी संवादविहीनता की स्थिति को पाटने का प्रयास कर रहा हूँ . इस माध्यम से किसी पाठक को सारे विचारों की झलक एक जगह पर मिल जायेगी और वो चाहे तो संबंधित चिट्ठों पर जाकर विस्तार से भी पड़ सकता है.

आजकल मौसम गर्म है . दिल्ली का भी और चिट्ठाजगत का भी . चिट्ठाजगत की गर्मी एक चिंता की बात हो सकती है ...कई मामलों में कुछ चिट्ठाकार इस चिंता को अपने चिट्ठों के माध्यम से समय समय पर प्रकट भी करते रहे हैं. हिन्दी चिट्ठाजगत को अभी कई मोर्चों पर लड़ना है .पहले ये संशय हुआ कि पत्रकारों के चिट्ठाजगत में प्रवेश करने के कारण है . फिर इसे किसी तरह से समाप्त माना गया . लेकिन चिट्ठाजगत पर बहसें नहीं रुकी .

अफलू जी ने एन्ड्र्यू कीन के माध्यम से कहा . " चिट्ठेकारी का चिन्ताजनक पक्ष प्रस्तुत करते हैं एन्ड्र्यू कीन जैसे शक्स ।चिट्ठेकारी का सम्मोहन लोगों में यकीन पैदा कर देता है कि उनके पास बताने के लिए काफ़ी कुछ है जो रुचिपूर्ण भी है , दरअसल ऐसा होता नहीं है ।लोग खुद से खुद के बारे में बतियाते-बतियाते आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे हैं ।’

सृजन शिल्पी जी यहीं अपनी टिप्पणी में कहते हैं .

" उपर्युक्त उद्धरण के बरअक्स निम्नलिखित उद्धरण को भी यदि ध्यान में रखें तो सटीक जवाब मिल जाएगा:
“If they’re not sticking to standards, it’ll be noticed by readers and other webloggers, who will take the author to task for the impropriety. The community acts as the editors.”
आशय यह कि चिट्ठा लिखने वाला आत्म-मुग्धता का शिकार होकर फुलकर चाहे जितना गुब्बारा बन ले, लेकिन जब सजग पाठकों की टिप्पणियों की सूइयां उसे चुभनी शुरू होती हैं तो उसे पिचककर अपनी औकात में आना ही पड़ता है। पाठकों की टिप्पणियां चिट्ठाकारों के लिए संपादकीय अंकुश का काम करती हैं।
हिन्दी चिट्ठाकारी में भी इसे घटित होते देखा गया है। चिट्ठाकार जब फुलकर गुब्बारे बनने लगते हैं तो टिप्पणियों की सूइयां ही उन्हें औकात में रहने के लिए मजबूर करती हैं। "


कमल शर्मा का कहना है .

"चिठ्ठेकार आत्ममुग्धंता के शिकार होते हैं और कई लोग तो जबरिया अपनी रिपोर्ट पढ़वाकर अपनी पीठ भी ठुकवाते हैं। लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि यह माध्यतम ऐसा है जिसका सदुपयोग किया जाए तो लोग एक दूसरे के निकट आने के साथ सभ्यमता, संस्कृुति, समाज, खानपान, रहन सहन, दिक्ककतों, सुविधाओं से परिचित हो सकते हैं। इस माध्यचम से एक दूसरे को बेहतर जानकारियां दी जा सकती है और कई मुद्दे इस तरह उठ सकते हैं कि उन पर सरकारों और संगठनों को विचार करना पड़ सकता है। हम अपने ब्लॉतग पर लिखी बातों को सांसदों और विधायकों एवं नौकरशाहों तक आसानी से पहुंचा सकते हैं जिनसे हो सकता है समाज या समस्याोग्रस्तो लोगों का भला भी हो जाए। आत्मोमुग्धत या खुद की प्रशंसा से बेहतर है हम एक नए और सुशिक्षित समाज के निर्माण के लिए ब्लॉ।गों का इस्तेैमाल करें।"

नितिन बागला इससे सहमत होते नहीं दिखते .नितिन बागला कहते है .

कीन इसे आत्ममुग्धता कह रहे हैं…कोई इसे आत्मविश्वास भी कह सकता है…अपना अपना नजरिया है।

मेरी नजर में अधिकतर चिट्ठाकारों के लिये ये आत्ममुग्धता ही है. इसिलिये फुरसतिया जी इसे मुग्धा नायिका से जोड़ते हैं वो कहते हैं " अगर आप इस भ्रम का शिकार हैं कि दुनिया का खाना आपका ब्लाग पढ़े बिना हजम नहीं होगा तो आप अपना अगली सांस लेने के पहले ब्लाग लिखना बंद कर दें। दिमाग खराब होने से बचाने का इसके अलावा कोई उपाय नहीं है।" उनके अनुसार एक चिट्ठाकार एक मुग्धानायिका की तरह होता है.

अफलू जी इसी बहस को अपनी नयी पोस्ट “मीडिया प्रसन्न , चिट्ठेकार सन्न “ के जरिये आगे बढ़ाते हुए कहते हैं “इस माध्यम (चिट्ठाकारी) में सबसे जरूरी है पारदर्शिता । कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ते वक्त यदि स्रोतो का जानबूझकर जिक्र न हो या अथवा किसी के अन्य स्थलों पर लिखे गये बयानों को ऐसे जोड़ देने से मानो वे बयान भी वहीं दिये गये हों बवेला ज्यादा होता है ।संजाल पर परस्पर होने वाले संवाद की श्रेष्ठता इन सब पर भारी है । ऐसे में अन्य माध्यमों द्वारा संजाल पर हाथ आजमाने को जरूर बढ़ावा दिया जायेगा । “
वे अपनी इस पोस्ट में मीडिया के चिट्ठाजगत में बढ़ते प्रभाव से भी चिंतित जान पड़ते हैं . उनके अनुसार चिट्ठाजगत की लोकप्रियता मीडिया को आकर्षित करेगी.

“ फिर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया हस्तियाँ अपने कारिन्दों को अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया समूहों की नकल करने के लिए प्रोत्साहित ही करेंगी अथवा नहीं ? क्योंकि कागजी घोड़ों से भी तेज होता है साइबर घोड़ा । “

प्रियंकर जी भी इससे सहमत जान पड़ते हैं

" आपने आसन्न खतरे को बहुत जल्दी और सही भांप लिया है . भारतीय और हिंदी चिट्ठा-जगत पर भी ये बादल मंडराएंगे ही . यहां के मीडिया प्रतिष्ठान भी ऐसे अस्तबल शुरु करने का प्रयास कर रहे होंगे . क्या पता शुरु कर भी दिये हों . पर इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निश्चित रूप से संकुचित होगी . उसे निर्दिष्ट मोड़ देने के भी संस्थागत और सामूहिक प्रयास होंगे . इससे सावधान रहने की ज़रूरत है .

विचारशील मनुष्य की तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष हो सकें तो सर्वोत्तम है . और अगर साइबर घोड़ा बनना ही हमारी नियति हो तो हमें इस आभासी और आकाशी वन में दुलकी चाल में चलने वाला और निर्द्वंद विचरण करने वाला स्वतंत्र घोड़ा होना चाहिए मीडिया प्रतिष्ठान की सवारी ढोने वाला लद्दू घोड़ा नहीं ."


ये विषय सृजन जी और कमल शर्मा जी का प्रिय विषय जान पड़ता है इसीलिये पिछ्ली पोस्ट की तरह इस पोस्ट पर भी दोनों सटीक टिप्पणी करते हैं . सृजन जी का कहना है

“वाह! बहुत बढ़िया। आपने सही नब्ज पकड़ी है। भारतीय मीडिया के कर्णधारों को अपनी प्रासंगिकता और विश्वसनीयता खोने और का डर सता तो रहा है और हो सकता है कि कभी-कभी उनका ज़मीर भी उन्हें अकेले में जन सरोकारों से कट जाने की विवशता पर कचोटता हो, लेकिन अभी भी वे स्वतंत्र चिट्ठाकारों की आवाज को मुख्यधारा में स्पेस देने के लिए तैयार नहीं दिख रहे हैं।
टी.आर.पी. और विज्ञापन जुटाने के लिए वे राखी सावंत और मल्लिका शेरावत को दिखाएंगे और जब ज्वलंत मुद्दों पर बहस कहने की बात आएगी तो भाड़े पर कुछ सुविधाजीवी और ‘आइडेंडिटी क्रेजी’ विशेषज्ञों एवं बुद्धिजीवियों को बुलाकर उनके बीच प्रायोजित मुकाबला भी करा देंगे, लेकिन जागरूक जनता की स्वतंत्र मुखर आवाज करने वाले चिट्ठाकारों को निष्पक्ष ढंग से अपनी बात कहने का स्पेस नहीं देंगे।
भारतीय मीडिया को अभी अमेरिका एवं यूरोप के मीडिया जगत जैसी समझदारी और परिपक्वता हासिल करने में लंबा वक्त लगेगा। अभी तो यहां पत्रकारों के वेश में अधिकतर दलाल, एजेंट और चाकर ही छाए हुए हैं।


कमल शर्मा जी का कहना है .

"आपने खूब बेहतर लिखा है। मजा आ गया ब्लॉतग की रेटिंग होने का मतबल है कि टीआरपी जैसी लड़ाई जबकि बेहतर चीजें खोजकर लिखना समाज के लिए ज्याादा अच्छा होगा। मैं सृजनशिल्पी जी से सहमत हूं कि फिर यहां लेखन में आइटम ही आइटम मौजूद रहेंगे। सामग्री का दर्जा भी गिर सकता है टीआरपी पाने के चक्कंर में। हो सकता है मेरा जैसा आदमी जो आर्थिक मामलों पर लिखता रहे और कभी टीआरपी में जगह न पा सके क्योंीकि बोरियत लगती है इसे पढ़ने में अधिकतर लोगों को। कुछ श्रेष्ठा रचनाओं जैसे पुरस्का्र दिए जाने चाहिएं भले ही वे बगैर पैसे के हों। लेकिन कोई अवार्ड चालू करना चाहता हो तो हर महीने मैं एक हजार रुपए दे सकता हूं। "

अब कमल जी हर महीने हजार रुपये देने के लिये तैयार बैठे हैं और कोई आगे ही नहीं आ रहा. है कोई अवार्ड शुरु करने वाला.

जीतु जी जो किन्ही विशेष चिट्ठों पर ही अपनी टिप्पणी इनायत करते हैं वो भी बोले.

" बहुत अच्छा लिखा है। दरअसल मीडिया वाले अब इसमे कमाई की गुंजाइश देखकर आकर्षित हो रहे है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ब्लॉग पर गंद नहीं लिखा जा सकता। मीडिया हाउस इस बात से परेशान हो रहे है कि उनके ब्लॉग को कोई पूछ क्यों नही रहा, जबकि विषय तो वे भड़काऊ उठा रहे है, लेकिन शायद अभी भी मीडिया वाले साथी हिन्दी ब्लॉगिंग की नब्ज को नही पकड़ सकें है। और ऐसे काम करते हुए शायद पकड़ भी नही सकेंगे।
सबसे बड़ी बात, अभी हम सभी चिट्ठाकार इसे सिर्फ़ शौक बनाए हुए है, हम स्थापित लेखक नही है और ना ही चर्चित पत्रकार, लेकिन फिर भी विषय आधारित लेख लिखने मे हम ज्यादा पाठक बटोरेंगे क्योंकि हम सनसनी नही परोसते।
मेरा तो सभी चिट्ठाकारों से यही निवेदन है, कि अपनी मस्ती से लिखें। बिना किसी लाग-लपेट के, लेकिन हाँ लेख सही तथ्यों पर आधारित हो, पहचान मिलनी तय है। आज नही तो कल, दुनिया आपको ढूंढ ही लेगी। लेकिन हाँ अस्तबल वाले घोड़े मत बनना, निष्पक्ष, निर्भीक लेखन ही ब्लॉगिंग की पहचान होनी चाहिए। "


तो ये तो थी चिट्ठाजगत की चिंताओं पर एक दृष्टि . इसी तरह एक और चिंता नीलिमा जी को भी है . नीलिमा जी कहती हैं
" हिंदी पट्टी में हलचल मचनी थी सो मच ही गई है ! हिंदी के बडे -बडे चिंतक अब अपने- अपने पाले डिसाइड करने में लग गयॆ हैं ! यह पाला - चिंतन उपजा है हाल में ही हिंदी- ब्लॉगिंग को लेकर जालजगत के बाहर हो रही सरगर्मियों की वजह से !"

" पहले अंधेरे में ये सुधी जन तीर चलाते थे अब तस्वीर साफ होती जान पड रही है सो समझदार दूरदर्शी लोग साथ आकर भी खडे होने लगेंगे ! किंतु कहीं ऎसा न हो कि ब्लॉग जगत पर राय खडी करने , उसका भविष्य तय करने का काम वे लोग करे रहे हों जो मुख्यधारा के नियंत्रक हैं और चिट्ठाकारी की आत्मा से जुडाव रखने वाले चिट्ठाकार इससे नाखबर रहें !"

सृजन जी ने अपनी टिप्पणी में कहा

"अब समय आ गया है कि हम चिट्ठा जगत की अंदरुनी उठापठक से यथासंभव बचते हुए मुख्यधारा के साथ अपने अंतर्संबंधों को फिर से परिभाषित करें। इसमें बस एक ही दिक्कत है और वह यह कि जब जिसे मौका मिलता है आत्मश्लाघा पर उतर आता है, अपना ही गुणगाण करने लगता है या अपने मित्रों से करवाने लगता है, जिससे दूसरों को कोफ्त होती है। मुख्यधारा के लेखन में एक किस्म की तटस्थता, समालोचना और वस्तुनिष्ठता की दरकार होती है। यदि हम इसका ध्यान रखें तो शायद हम ऐसे गैर-चिट्ठाकार स्वनामधन्य लेखकों को श्रेय लूटने और अपने हिसाब से चिट्ठाकारी का स्वरूप रेखांकित करने का मौका नहीं देंगे"


अनूप जी कहते हैं

"ब्लाग के बारे में परिचयात्मक लेख भले ही कोई लिख ले लेकिन अंतत: ब्लागर ही इसकी कहानी लिखेंगे! किसी के कुछ लिखने से वह विधा उसके हाथ में नहीं चली जाती " !

ऎसी ही कई चिंताऎं उठी पिछ्ले सप्ताह . उन पर नजर अगली पोस्ट में .

शनिवार, 28 अप्रैल 2007

मेरी पहली चर्चा

पहले जब किताब पढ़ता था तो जो भी अच्छा लगता था उसे कहीं लिख लेता था कभी कभी अपने कॉमेंट्स भी लिख लेता था . आजकल किताबें कम ही पढ़ता हूं ब्लौग ज्यादा पढ़ता हूं तो सोचा ऎसा ही कुछ यहाँ भी करूं. यह मेरी पसंद है ..जो मैने पढ़ा और जो मुझे अच्छा लगा बस लिख दिया. य़े ना तो किसी भी प्रकार से कोई रेटिंग है ना ही सारे चिट्ठों को यहां समेटने की कोशिश .

प्रारंभ करते हैं 19 अप्रेल से .. इस दिन जो सबसे पहली पोस्ट आयी वो थी ‘इंटरनेट, ज़ुर्म, क़ानून और कारिंदे’ के बारे में . सृजन शिल्पी जी ने बड़े ही अच्छे ढंग से बताया इंटरनैट से संबंधित कानूनों के बारे में. उनका कहना है कि

‘क़ानून हमेशा टेक्नोलॉजी से पीछे रहता है। लेकिन ज़ुर्म करने वाले क़ानून की कछुआ चाल में यक़ीन नहीं करते। वे टेक्नोलॉजी के मामले में हमेशा क़ानून और उसका पालन करवाने वाले कारिंदों से आगे रहते आए हैं।‘
ये अपने आप में एक बड़ी विडंबना है . क्योकि पहले तो बात है कानून की अनुपलब्धता की फिर उस कानून के प्रचार ,प्रसार और उपयोग की . हम सभी जानते है कि भारत जैसे देश में न्यायपालिकाओं में मुकदमे कितने लंबे चलते हैं और ये सब होता है कानून होने के बावजूद और यदि कानून ही ना हो तो . इसीलिये तो वो कहते हैं
"सच्चाई तो यह है कि क़ानून की मौजूदगी भी ज़ुर्म को होने से नहीं रोक पाती। ज़ुर्म
करने वाले या तो क़ानूनों से अनजान होते हैं या फिर उनकी परवाह नहीं करते।“
दूसरा एक और महत्वपूर्ण पहलू है कानून की जानकारी का . कानून हो और उसको लागू करने और करवाने वालों को उसकी जानकारी ना हो तो भी वो कानून किसी काम का नहीं.
"सायबर अपराधियों को पकड़ने और उन्हें सजा दिलाने के मामले में एक बड़ी दिक्कत तो यह है कि न तो पुलिस इंटरनेट टेक्नोलॉजी में पर्याप्त प्रशिक्षित है, न वकील और न ही जज। वे क़ानून तो अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी को नहीं। “


जहां तक कानून की बात है इसका प्रचार प्रसार भी बहुत ही जरूरी है ताकि जो टेक्नोलॉजी के यूजर हैं वो भी इस बात से अवगत हों कि वो क्या सही कर रहे हैं क्या गलत. अब जैसे कॉपीराइट कानून को ही लें . इंटरनैट भी इसके दायरे में आता है . इंटरनैट पर किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखी मौलिक रचना का अपने नाम से दुबारा प्रयोग गलत है लेकिन फिर भी लोगों द्वारा दूसरों की रचना का उपयोग बड़ी ही बेशरमी से किया जाता है . ठीक ऎसी ही स्थिति पाइरेसी से संबंधित कानूनों को लेकर है. हाँलांकि पिछले कुछ समय से नैसकोम , बी एस ए ने एंटी पाइरेसी मुहिम छेड़ रखी है पर फिर भी बहुत कुछ किया जाना बांकी है .

अमित जी ने अपने ब्लौग पर मोबाइल से मच्छर भगाने के बारे में बताया.
“ड्रेगन फ़्लाई और चमगादड़ मच्छरों के पैदाईशी शत्रु होते हैं। यह सॉफ़्टवेयर फोन के
स्पीकर द्वारा दोनों ही की अल्ट्रासोनिक ध्वनि निकाल सकता है जिसे सुन मच्छर भाग खड़े होते हैं” .

लेकिन इस की उपयोगिता के बारे में संदेह है जैसे रवि जी ने अपनी टिप्पणी में कहा .

"परंतु क्या इससे सचमुच मच्छर भागते भी हैं? यदि 20 % भी मच्छर भागें तो यकीन मानिए मैं पांच पांच मोबाइल लेकर घूमूंगा. पिछले पांच बरस में सिर्फ और सिर्फ मलेरिया के कारण ही दस बार बीमार पड़ा!और, सागर भाई, क्या आपने भी अपनी इलेक्ट्रॉनिक मशीन जाँची है? एक दफ़ा मैंने अच्छी खासी मशीन खरीदी थी जो कि अल्ट्रा साउंड पैदा करती थी - तो बजाए मच्छर भगाने के, वो मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती थी. एक कंप्यूटर प्रोग्राम भी डाउनलोड किया था जो कि आपके कम्प्यूटर के स्पीकर में मच्छर भगाऊ अल्ट्रासाउंड पैदा करता था. मगर उसके बाद दो बार मलेरिया हो गया. मच्छर भगाने की सबसे बढ़िया तरकीब किसी के पास हो तो बताएं!!!”
इस बारे में लेखक यानि मेरे भी अनुभव यही है कि इस प्रकार के उपकरण मच्छर भगाने में उतने कारगर नहीं होते. जहां तक बात है मलेरिया की तो इस में व्यक्ति की रोग प्रतोरोधात्मक क्षमता का भी हाथ है केवल मच्छरों का ही नहीं . सागर जी के पास भी लगता है कि कोई तरकीब है . वो कहते हैं
“अगर किसी मित्र को मच्छर भगाने के लिये छोटी सी इलेक्ट्रोनिक मशीन बनानी हो तो मेल करें मैं लिस्ट और बनाने का तरीका भेज दूंगा।रचनात्मकता का संतोष तो मिलेगा ही साथ ही मच्छर भी भाग जायेंगे।“
रचना जी ने अपनी मौसमी रचना में लिखा
“मेरे गांव मे ज्यादातर शादियां अप्रेल और मई की भीषण गर्मी होती है, जब वहां बिजली
और् पानी की समस्या अपने चरम पर होती है..और इसकी एकमात्र वजह यही होती है कि उस पारिवारिक जलसे मे परिवार की हर बेटी और बेटा (जो किसी मेट्रो शहर् मे मल्टीनेशनल कम्पनी के लिये पसीना बहा रहा होता है) शामिल हो सके.”
लेकिन नितिन जी इस से सहमत नहीं और वो कहते हैं .
" गांवों में ज्यादातर शादियाँ अप्रेल मई में इसलिये होती हैं, क्योंकि, कृषि आधारित समाज में वही एक वक्त होता है, जब व्यक्ति अपने काम से फुरसत पाता है। उस समय तक फसल कट चुकी होती है, उसे बेच कर पैसा भी आ जाता है (जो शादी में ही काम आता है), और अगली फसल की तैयारी में १-२ महीने का वक्त होता है…”
बात तो तार्किक लगती है भाई. रचना जी शादियों में महिलाओं की स्थिति पर लिखती हैं
“ शादी पर बेटियो‍ और बहुओ‍ को मौसम के बिल्कुल विपरीत भारी से भारी गहने और
भारी से भारी साडी पहननी होती है…और अगर उसका नन्हा सा ८-१० महीने का बच्चा है तो बेचारे का मां की साडी और गहनो से घायल होकर रो-रो कर बुरा हाल हो जाता है”
अब समीरलाल जी की बातें सुन लें इन्हे “कोहरे में धुंधला दिखता है” और इनकी पत्नी इन्हे फटकारती हैं . भाई कोहरे में तो सभी को धुंधला दिखता है इसमें अचरज कि क्या बात . लेकिन इनके डॉक्टर साहब बताते हैं कि
“ डॉक्टर बाबू बतलाते हैं,चिंता की यह बात नहीं है , बुढ्ढों के संग हो जाता है ,
डरने वाली बात नहीं है.”
अब बुड्ढा कौन हुआ ये या इनकी पत्नी या फिर बेचारा डॉक्टर ही . और? भाई सारे प्रेम-तरीके नॉलेज में होने से कोई युवा थोड़े हो जाता है लेकिन आप तो अभी जवान है “ भरी जवानी नस नस में है , दिल भी मेरा नाच रहा , मेरी प्रेम भरी कवितायें , बच्चा बच्चा बांच रहा.” और ये तो अधिकतर युवाओं की तरह तोड़ फोड़ मचाने की धमकी भी दे रहे हैं . तो ये तो चिर-युवा हैं ही बांकी का हमें नहीं मालूम . वैसे अनूप जी को इनकी बात पर शक है और हमें अनूप जी पर क्योंकि कभी वो मुग्धा नायिका की बात करते है कभी गतयौवना की .
“जैसे कोई गतयौवना अपने हुश्न के कसीदे काढ़ने लगती है ऐसे ही बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ता
कवि अपना जवानी आख्यान लिखना शुरू कर देता है."

मोहिन्दर कुमार जी अपने अनुभव कुछ यों रखते हैं.
"जबानी और बुढापे में बस ये फ़्रर्क होता है
वो कश्ती पार होती है, ये बेडा गर्क होता है"


कमल जी अपनी तकनीकी चिट्ठे में बताते हैं कि उनका कंप्यूटर और हिन्दी से बहुत पहले का नाता है.
"कंप्यूटर पर हिन्दी की जरूरत मुझे पड़ी सन 1996 में . मैं एक मैनुफेक्चरिंग कंपनी में काम करता था वहां हम लोग मजदूरों के लिये ट्रेनिंग मैनुअल बनाते थे जो कि हिन्दी में होते थे . ये सब उन दिनों बाहर से टाइप करवाने पड़ते थे. इसमें एक तो समय बहुत लगता था और फिर एक बार बनने के बाद उनको बदलना बहुत मुश्किल होता था .तो हम चाहते थे कि इसको कंप्यूटर में ले के आना . उस समय माइक्रोसोफट वर्ड उतना पॉपुलर नहीं था . हम लोग ‘एमि प्रो’ और ‘फ्री लांस ग्राफिक्स’ इस्तेमाल में लाते थे . उस समय किसी स्थानीय कंपनी से हमने कुछ सोफ्टवेयर लिया जो कि ‘रैमिंगटन क़ी बोर्ड’ पर चलता था. इसको इस्तेमाल करने मे काफी समस्या आती थी. अप्रेल 1998 (शायद) में चिप’ पत्रिका का पहला अंक आया था ( ये ‘चिप’ के ‘चिप-इंडिया’ बनने और ‘डिजिट’ के आने से काफी पहले की बात थी ) उसमें भारत-भाषा के प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी दी गयी थी और साथ में ‘शुशा’ फोंट भी थे . तब से ही में ‘शुशा’ फोंट इस्तेमाल करने लगा. बाद में संस्थान के लिये ‘अक्षर’ और ‘श्री-लिपि’ भी लिये जो आज भी कुछ विभागों में
सफलता पूर्वक चल रहे हैं. जहां तक अंतरजाल (वैब) पर हिन्दी की बात है मैने अपनी पहली हिन्दी साइट 1998 में बनायी थी.

इसी बात को सुन शैलेश जी की दिमागी नसें हिल गयी .
कमल जी, मेरे दिमाग की नसें हिल गईं। ऐसे-ऐसे तकनीकी टर्म हैं कि कुछ के बारे में सुना भी नहीं है। लेकिन आपमें निहित ऊर्जा से यह सुकून मिलता है कि आगे से सबकुछ पढ़ने को मिलेगा। मुझ, बेवकूफ की जानकारी बढ़ेगी। आपके बारे में पढ़ना सुखद रहा। आप कम्प्यूटर पर हिन्दी तबसे प्रयोग कर रहे हैं जब मैंने कम्प्यूटर नामक शब्द भी नहीं सुना था।
तरुण जी लता जी के दो गानों को बजा-बजवाकर परेशान हैं वे बताते हैं.
"लेकिन किसी हिन्दी गायक के मुँह से और वो भी लताजी जैसी गायक, थोड़ा अटपटा लगता है ना। आप में से किसी ने कभी क्या ये नोट किया? आप भी “हम आपके हैं कौन” का ये गीत ध्यान से सुनिये फिर बताईये, इस गाने में लता जी ने कहाँ कहाँ पर “स” को “श” कह कर बोला या गाया है। "


अफलू जी ने अपनी पोस्ट में लोहिया जी हवाले से बोला है .
इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है । शान्ति सतोगुण का प्रतीक है । लेकिन अगर शान्ति कहीं बिगड़ना शुरु हो जाये तो फिर वह तामस का रूप ले लिया करती है ।
वो आगे लिखते हैं.

हिन्दुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए , कि नये काम मत करो , पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला टूट जाएगी तभी
मोक्ष मिलेगा ।यहाँ मुझे सिर्फ इतना ही बताना है कि इन किस्सों की एक-एक तफ़सील
में ,एक-एक संवाद में , एक-एक बात में मजा भरा है । जरूरी नहीं कि इन किस्सों को आप सही समझें ।जरूरी नहीं है कि आप उसको धर्म मानें । उनको आप सिर्फ उपन्यास की तरह लें ,एक ऐसा उपन्यास जो दस - बीस - पचास हजार आदमिओं तक नहीं ,बल्कि जो करोड़ों लोगों तक ५ हज़ार बरसों से चला आया है , और पता नहीं , कब तक
चला जाता रहेगा

बेजी जी ने गाँधीजी के बंदरों के जरिये बहुत कुछ समझाने की कोशिश की .


गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,
बुरी बात पर दो मत कान,
कभी न बोलो कड़वे बोल।
याद रखोगे यदि यह बात ,
कभी नहीं खाओगे मात,
कभी न होगे डाँवाडोल ।
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
-बालस्वरूप राही

उनके गुजरात के सिविल अस्पताल के अनुभव अच्छे हैं .
भरूच ,गुजरात के सिविल अस्पताल में कार्यरत थी। सभी घायल अस्पताल के कैश्यौलिटी में से गुजरते थे।उनके धर्म का सही अंदाजा उस समय लगाना कठिन था। सभी के चेहरे पर समान सी दहशत.....। चेहरे पर चिन्ता जान की थी....और परिवार की। मदद करने वालों के घर्म का अंदाजा भी लगाना मुश्किल था। किस धर्म के व्यक्ति का खून कहाँ चढ़ रहा था बताना मुश्किल था। दुकाने सभी बंद थी....वजह कोई बंद का आह्वान नहीं था....अपने दुकान की चिन्ता थी। सभी परेशान थे....करीबन हर दूसरी चीज़ के लिए एक दूसरे पर आश्रित थे।


अच्छी लगी उनकी बात ...

अभी इतना ही ..बाँकी फिर..