शनिवार, 5 मई 2007

कंप्यूटर , फ़्रिज और सामाजिक सरोकार

इस साप्ताहिक समीक्षा में हम 27 अप्रेल के बाद के सप्ताह में प्रकाशित कुछ चिठ्ठों की चर्चा/समीक्षा करेंगे.

मिर्ची सेठ ने प्रश्न उठाया कि "ये कम्पयूटर वालों को इतने पैसे क्यों मिलते हैं? " . उनके अनुसार..

" पिछले नौं साल से कम्पयूटर इंडस्टरी में काम कर रहा हूँ व उस से भी ज्यादा देर से इसके बारे में जानता हूँ। काफी बार यह प्रश्न दिमाग में आता है कि ये मार्किट कम्पयूटर ज्ञान को इतनी तवज्जो क्यों देती है? आज के दौर में एक साथ इतने सारे लोगों को बाकी लोगों से औसतन ज्यादा पैसे देने वाली इंडस्टरी शायद कम्पयूटर ही है। "

पंकज जी पिछ्ले 9 साल से इस इंड्स्ट्री में हैं और शायद अपने उन मित्रों से जो कंप्यूटर से नहीं जुड़े हैं से ज्यादा कमा रहे हैं . लेकिन उनका व्यक्तिगत अनुभव जो भी हो यह बात सच है कि वर्तमान समय में कम्पयूटर वालों की आय बाँकी क्षेत्रों में काम करने वालों से अधिक है .

इस पोस्ट पर काफी अच्छी प्रतिक्रियाएं आयीं .

कमल जी ने कहा

"मानसिक काम का महत्व शारीरिक काम से हमेशा से ज्यादा होता है . क्योकि शारीरिक काम एक विज्ञान की तरह है जिसे यदि कोई चाहे तो कर सकता है पर मानसिक काम एक कला है . जिसमें सृजनात्मक शक्ति की आवश्यक होती है . लेकिन फिर भी मैं तो यही कहुंगा कि अभी तो कंप्यूटर इंडस्ट्री में गधे , घोड़े सबको पैसे मिल रहे हैं . in long run there would be distinction between good ones and bad ones and that would be better for the ‘good ones’"

तो वे भी मानते हैं कि कम्पयूटर वालों को जो पैसे मिल रहे हैं वो सभी इसके हकदार नहीं हैं .

सुरेश जी की प्रतिक्रिया कुछ तीखी थी.

" भाई पैसे ज्यादा मिलते हैं तभी तो इन्हीं लोगों की बदौलत अस्सी प्रतिशत भारत महँगा गेहूँ खा रहा है… हमारे मालवा का गेहूँ ११०० रुपये क्विंटल में कम्प्यूटर वाला हँसकर ले लेगा, लेकिन यहीं का गेहूँ हम जैसे लोग ११०० रुपये में कहाँ से खरीदेंगे और कितना खरीदेंगे… बडे-बडे शॉपिंग माल में हमारे लिये कुछ नहीं है… सब software वालों के लिये है… रिलायंस और भारती आकर हमारे मुँह से दाल और सब्जी भी छीनने वाले हैं, क्योंकि उन्हें software वाले मुँहमाँगे पैसे देने को तैयार हैं…हर चीज महंगी और महंगी होती जा रही है चाहे उसे खरीदने की ताकत रखने वाले महज कुछ प्रतिशत ही हों…"

यानि को वो ये मानते हैं कि मँहगाई का मूल कारण ये कंप्यूटर वाले हैं . हमने तो लोगों को कहते सुना था कि कंप्यूटर इंड्स्ट्री का हमारे देश की प्रगति और विशेषकर जी डी पी बढ़ाने में बहुत योगदान है पर यहाँ तो कुछ उल्टा ही बोला जा रहा है.

इसका प्रतिकार अमित जी ने अपनी एक बड़ी टिप्पणी से किया .प्रस्तुत हैं क़ुछ अंश बाँकी पोस्ट पर पढ़ें.

"मैं नहीं समझता कि ऐसी कोई बात है । कंप्यूटर और सॉफ़्टवेयर वालों को अच्छा वेतन मिलना महंगाई का कारण नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ तो यह हुआ कि जैसे भारतीय समाज में अमीर लोग कंप्यूटर आने से पहले थे ही नहीं, क्यों? लेकिन ऐसा नहीं है, अमीर लोग तो सदियों से हैं जो उँचे दाम में चीज़ें खरीदते थे और खरीदते हैं।

.... शॉपिंग मॉलों में भी वही दुकाने हैं जो पहले अन्य मार्किट कॉमप्लेक्सों में थीं। यदि ये दुकानें पहले और अभी भी आपकी पहुँच से बाहर हैं तो शॉपिंग मॉल खुल जाने से ये सोचना, कि ये दुकाने और इनका माल सस्ता हो पहुँच में आ जाएगा, सरासर मूर्खता ही है मेरी निगाह में। "

......आप बात अमीरी और गरीबी पर ले गए हैं सुरेश जी, फर्क इतना है कि सॉफ़्टवेयर वालों को आपने अमीरी का पर्याय मान लिया है जो कि सरासर गलत है। वे लोग भी अन्य लोगों की भांति जी-तोड़ मेहनत करते हैं, फोकट की नहीं खाते। अब उनको वेतन अधिक मिलता है तो इसमें उनका दोष है क्या?? कोई अपनी मेहनत और अक्ल से अमीर बना है तो उसने गुनाह किया है? आज की दुनिया में पैसा कमाना कोई बड़ी बात नहीं है, व्यक्ति यदि समझदारी से काम करे तो। समझदारी से काम करने पर तो सड़क पर छोले-भठूरे की रेहड़ी लगाने वाला भी अच्छे-खासे पैसे कमा लेता है और जिसमें समझ नहीं वो कलपता ही रह जाता है। अब किसी में समझ नहीं तो इसमें समझ वालों का दोष है? "


शायद सुरेश जी को तो उत्तर मिल गया हो गया लेकिन मिर्ची सेठ का प्रश्न तो रह ही गया. इसी का उत्तर देने का प्रयास किया राजीव जी ने अपनी पोस्ट में .

कुछ अंश

" मैं भी इसी संगणक / अंतरजाल के व्यवसाय से संबद्ध हूँ "

"1.) अधिक पैसे की बात सिर्फ दो या तीन मूल कारणों से है पहला सीधा सा अर्थशास्त्र का नियम कि माँग और आपूर्ति का अंतर।

2.) दूसरी बात जो मिर्ची सेठ ने नवोत्पाद की कही, वह पूर्णत: सत्य नहीँ कही जा सकती, मैं इसे केवल आंशिक रूप में ही मानता हूँ। इस व्यवसाय में लगे अधिकतर लोग नव-सृजनात्मकता में नहीं लगे, वे मात्र किसी विकसित तकनीक पर अनुप्रयोग (Applications) बनाते हैं, या इन्हें संश्लेषित (Synthesis or Integrate) करते हैं, या फिर उनका संरक्षण (Maintenance) करते हैं

एक और बात यह कि अन्य व्यवसायों में नव-सृजनात्मकता कम होती है, ठीक नहीं। संगणक से सम्बद्ध क्षेत्र मेरा भी आय का स्रोत है पर दूसरे क्षेत्रों के योगदान को मैं सृजनात्मकता से विहीन नहीं मानता। "

" यही नहीं, मेरा तो मानना है, कि मूल-सृजन की संभावना तो हर क्षेत्र में हर समय रहती हैं, रहेंगी।"


मसिजीवी जी का मानना है

" नवसृजन की बात एक सीमा तक सही होते हुए भी कई मामलों में इस काम को ग्‍लैमराइज करने की कोशिश लगती है। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के पटेल चैस्‍ट के पास आइए दक्ष डीटीपी आपरेटर 150 रुपए(3+ डालर) की दिहाड़ी पर काम करने को तैयार हैं-(दिल्‍ली में आजकल बेलदर 120 रुपए और मिसत्री 175-200 रुपए में मिलता है) तो भैया ये तो मांग पूर्ति की ही बात है। "

इस पोस्ट के बाद कमल जी ने एक सर्वेक्षण के माध्यम से बताया कि अमेरिका में कंप्यूटर कर्मी दूसरे लोगों के मुकाबले औसतन कम काम करते है और जैस कि वो खुद कहते हैं कि

" अब इसका पैसे से क्या संबंध है ये तो नहीं मालूम पर ये आंकड़े जरूर कुछ मिथकों को तोड़ते हैं."

27 तारीख से ही शुरु हुई फ्रिज गाथा भी .

रवीश कुमार जी ने फ्रिज पर पूरी तीन पोस्ट लिख डाली.

पहली पोस्ट के कुछ अंश

" मालूम नहीं था कि फ्रिज़ में रखे खाने का स्वाद कैसा होता है । पानी ठंडा होता है इसका रोमांच था लेकिन स्वाद नहीं । ठंडा मतलब सुराही का पानी होता था ।जिसे हम हर गर्मियों में पटना के गंगा नदी के किनारे बिकने वाली सुराही के ढेरों में से चुन कर लाते थे । हमारे घर अब फ्रिज़ आने वाला था ।"..................

.................


".....क्या रखें ? उसने कहा खाना सब्ज़ी ये सब रखिये । पर ये सब तो ख़त्म हो चुका है । सब्ज़ी तो रोज़ आती है और रोज़ बनती है । आलू बचा है उसे रख सकते हैं क्या ? बोला आलू नहीं । जो खराब हो सकता है उसे रखिये । उसने समझाया कि अब सुबह शाम हरी सब्ज़ी लाने की ज़रूरत नहीं । एक बार खरीद कर रख दीजिए । बस पिताजी विद्रोह कर गए । यह नहीं होगा । बासी सब्ज़ी कैसे खायेंगे । फ्रिज़ को लेकर सांस्कृतिक टकराव शुरू हो गया ।"
..............
" फ्रिज़ का नहीं होना एक सामाजिक आर्थिक अंतर था मगर फ्रिज़ में किसी चीज़ का नहीं होना अलग सामाजिक आर्थिक अंतर । फ्रिज के खालीपन ने हमारी हैसियत एक बार फिर तय कर दी । या गिरा दी । हम सब आहत थे । ताजा खाना खाने वाले हम सब फ्रिज़ की गोद भऱने के लिए कुछ बचाने लगे । ताकि उसमें रखा जा सके । साहूकार से पूछ कर कुछ ऐसी चीज़े मेरे घर में पहली बार आईं जो नहीं आती थी । सॉस, जैम और जेली । यह खाने के लिए कम रखने के लिए ज़्यादा आते थे । धीरे धीरे इन्हें खाने भी लगे । हमारे घर में सुबह शाम सब्ज़ी कम खरीदी जाने लगी । ताकि फ्रिज़ भरा रहे । और हमारा सामाजिक सम्मान बचा रहे । खाली रहने पर अच्छा नहीं लगता है । यह अहसास होने लगा था । इसीलिए फ्रिज़ के दरवाज़े का एंगल ऐसा रखा गया कि खुलते वक्त कोई झांक कर देख न ले कि इसमें क्या रखा है । फ्रिज़ हमारी आबरू का हिस्सा बन गया ।"

मैने तब अपनी टिप्पणी में कहा था "आपने तो बहुत सी कहानियों और घटनाओं की याद दिला दी . पहले याद आयी रेणू की "पंचलाईट" जिसमें एक पैट्रोमेक्स के खरीदे जाने का अच्छा चित्रण है ..फिर याद आयी एक ओर कहानी "परदा" जिसमें परदा घर की इज्जत का प्रतीक बन गया था."

शशि सिंह जी बोले

"मध्यवर्गीय परिवारों में टीवी-फ्रिज़ जैसी चीजें हमेशा से एक वस्तु से ज्यादा रहीं हैं।"

नितिन बागला बोले

"८० के दशक में जब गांव मोहल्ले में टी.वी. आता तो भी कुछ ऐसी ही भीड जमा होती थी"

मनीषा पांडेय का कहना था

" मेरे बचपन और युवावस्‍था में घर में फ्रिज नहीं हुआ करता था। मां के घर तो आज भी नहीं है। कहती हैं, पानी ठंडा करने के लिए 10,000 रु. क्‍या खर्च करना। तुम्‍हारी मति मारी गई है। लेकिन मुझे याद है, बचपन में फ्रिज कितनी बड़ी चीज हुआ करती थी। एक किस्‍म का स्‍टेटस सिंबल। जिन भी पड़ोसियों और रिश्‍तेदारों के घर में फ्रिज आया, किसी उत्‍सव से कम नहीं था फ्रिज का आना। स्‍कूल में लड़कियां फ्रिज के बारे में बातें करती थीं, ठंडे पानी और फ्रिज की आइसक्रीम के किस्‍से सुनाए जाते। फ्रिज वालियों की हैसियत अपने आप ऊंची हो जाती थी।"

अभिनव जी ने भी कुछ ऎसा ही कहा

"हमारे यहाँ भी लगभग उसी काल में फ्रिज देवता का प्रवेश हुआ था। ठंडे पानी के अतिरिक्त रूहाफ्ज़ा तथा बर्फ भी उसके प्रारंभिक किराएदारों में रहे। आजकल तो फ्रोज़ेन पराठे तथा रोटियों के साथ महीनों पहले कटी हुई सब्जि़यों नें यहाँ डेरा डाल रखा है। समय के साथ फ्रीज़र का आकार बढ़ता गया तथा चीज़ों का बासीपन भी।"

फ़्रिज की पहली कहानी बहुत अच्छी रही . टिप्पणीयों के माध्यम से लोगों ने इस कहानी के साथ अपने पुराने समय को जोड़ा .इसी से प्रेरित होकर रवीश जी ने दूसरी कथा लिखी

हर फ्रिज़ कुछ कहता है-दो

" अब फ्रिज़ को देखता हूं तो लगता है कि कितना बदल गया है । फ्रिज़ नहीं, मेरा जीवन । भागती ज़िंदगी के कारण अब छोटे फ्रिज़ की जगह बड़ा और उससे भी बड़ा फ्रिज़ खरीदा जाने लगा है । दुकानदार भी छोटे फ्रिज़ के लिए उत्साहित नहीं करता । कहता आपका दिन बदलेगा । दिल्ली में तीन घंटा बस या कार में चलेंगे तो घर आकर कैसे बनायेंगे । सब्ज़ी खरीदने का टाइम नहीं होता । इसलिए बड़ा फ्रिज़ लीजिए ताकि स्टोर कर सकें । फ्रिज़ स्टोर है ।"

" हमारी बदलती ज़िंदगी के कारण फ्रिज़ के भीतर धक्कामुक्की बढ़ गई है । जिसका सबसे ज़्यादा ख़मियाजा टमाटर और धनिये की पत्ती को उठाना पड़ता है । धनिये की पत्ती तो कहीं दबकर सूख भी जाती है । और टमाटर जितना घर लाते वक्त झोले में नहीं पिचकता उससे कहीं ज़्यादा फ्रिज़ में । सिर्फ लौकी या कद्दू फ्रिज़ के भीतर अपनी अस्मिता बचा पाते हैं ।
फ्रिज़ के दरवाज़े पर कई घरों में बच्चों की कविताएं, स्कूल की चिट्ठी, रूटीन, क्या करना है की सूची, दूध वाले का हिसाब, इन सब चीज़ों को मैगनेट से चिपका कर रखा जाता है । फ्रिज़ का डोर नोटिस बोर्ड का काम करता है । कई घरों में फ्रिज़ छोटे बच्चों के लिए ड्राइंग बोर्ड का काम करते हैं ।"

"फ्रिज़ अनंत फ्रिज़ कथा अनंता ।"


फ्रिज की अनंत कथा को और थोड़ा विस्तार देते हुए इसी कथा का तीसरा भाग आया...हर फ्रिज़ कुछ कहता है- तीन

" फ्रिज़ सामाजिक बुराइयों का भी हिस्सा बना । दहेज में फ्रिज़ की मांग अनिवार्य हो गई । ........बहुत घरों में शादी से साल भर पहले ही फ्रिज़ खरीद लिया जाता था । दुकानदार से पूछिये फ्रिज़ की बिक्री शादी के दिनों में कितनी बढ़ जाती है । फ्रिज़ दहेज का ज़रूरी सामान बन गया है ।"

"फिर भी सुराही की बात ही कुछ और है । मगर फ्रिज़ ने सुराही के नाम में घुसने की कम कोशिश नहीं की है । सुराही को मिनी फ्रिज़ कहा जाने लगा था ।"



अब थोड़ा पंचलाईट की भी चर्चा हो जाये .ये कहानी फणीश्वर नाथ रेणू की कहानी है . गाँवों में पैट्रोमैक्स को पंचलाईट कहते है . किसी एक गांव मे एक पंचायत वाले नया पंचलाईट खरीद के लाये दूसरी पंचायत की देखा-देखी . पंचलाईट तो आ गया ..सब गांव वाले भी जुट गये लेकिन किसी को पंचलाईट जलाना तो आता ही नहीं था .. ये गाँव की इज्जत का सवाल था . तभी ग़ाँव की मुनरी ने अपनी सहेली के कान में कहा चिगो चिध चिन ..यानि गोधन .. गोधन गाँव का एक मनचला युवक था जो मुनरी को देखकर सलम सलीमा वाला गाना गाता था इसिलिये पंचायत ने उसका हुक्का पानी बंद करवा रखा था . लेकिन पंचायत की इज्जत का सवाल था .. इसलिये गोधन को बुलाया गया और उसने पंचलाईट जला दिया और सरदार बोल उठे " अब तो तुम्हारा सात खून माफ..खूब गाओ सलम सलीमा वाला गाना अब" ...ये कहानी आज से कोई 18 साल पहले पड़ी थी. लेकिन अभी तक याद है..

अभी इतना ही ...बाँकी के चिट्ठों पर चर्चा अगली पोस्ट में.....

कोई टिप्पणी नहीं: