शनिवार, 28 अप्रैल 2007

मेरी पहली चर्चा

पहले जब किताब पढ़ता था तो जो भी अच्छा लगता था उसे कहीं लिख लेता था कभी कभी अपने कॉमेंट्स भी लिख लेता था . आजकल किताबें कम ही पढ़ता हूं ब्लौग ज्यादा पढ़ता हूं तो सोचा ऎसा ही कुछ यहाँ भी करूं. यह मेरी पसंद है ..जो मैने पढ़ा और जो मुझे अच्छा लगा बस लिख दिया. य़े ना तो किसी भी प्रकार से कोई रेटिंग है ना ही सारे चिट्ठों को यहां समेटने की कोशिश .

प्रारंभ करते हैं 19 अप्रेल से .. इस दिन जो सबसे पहली पोस्ट आयी वो थी ‘इंटरनेट, ज़ुर्म, क़ानून और कारिंदे’ के बारे में . सृजन शिल्पी जी ने बड़े ही अच्छे ढंग से बताया इंटरनैट से संबंधित कानूनों के बारे में. उनका कहना है कि

‘क़ानून हमेशा टेक्नोलॉजी से पीछे रहता है। लेकिन ज़ुर्म करने वाले क़ानून की कछुआ चाल में यक़ीन नहीं करते। वे टेक्नोलॉजी के मामले में हमेशा क़ानून और उसका पालन करवाने वाले कारिंदों से आगे रहते आए हैं।‘
ये अपने आप में एक बड़ी विडंबना है . क्योकि पहले तो बात है कानून की अनुपलब्धता की फिर उस कानून के प्रचार ,प्रसार और उपयोग की . हम सभी जानते है कि भारत जैसे देश में न्यायपालिकाओं में मुकदमे कितने लंबे चलते हैं और ये सब होता है कानून होने के बावजूद और यदि कानून ही ना हो तो . इसीलिये तो वो कहते हैं
"सच्चाई तो यह है कि क़ानून की मौजूदगी भी ज़ुर्म को होने से नहीं रोक पाती। ज़ुर्म
करने वाले या तो क़ानूनों से अनजान होते हैं या फिर उनकी परवाह नहीं करते।“
दूसरा एक और महत्वपूर्ण पहलू है कानून की जानकारी का . कानून हो और उसको लागू करने और करवाने वालों को उसकी जानकारी ना हो तो भी वो कानून किसी काम का नहीं.
"सायबर अपराधियों को पकड़ने और उन्हें सजा दिलाने के मामले में एक बड़ी दिक्कत तो यह है कि न तो पुलिस इंटरनेट टेक्नोलॉजी में पर्याप्त प्रशिक्षित है, न वकील और न ही जज। वे क़ानून तो अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन टेक्नोलॉजी को नहीं। “


जहां तक कानून की बात है इसका प्रचार प्रसार भी बहुत ही जरूरी है ताकि जो टेक्नोलॉजी के यूजर हैं वो भी इस बात से अवगत हों कि वो क्या सही कर रहे हैं क्या गलत. अब जैसे कॉपीराइट कानून को ही लें . इंटरनैट भी इसके दायरे में आता है . इंटरनैट पर किसी भी व्यक्ति द्वारा लिखी मौलिक रचना का अपने नाम से दुबारा प्रयोग गलत है लेकिन फिर भी लोगों द्वारा दूसरों की रचना का उपयोग बड़ी ही बेशरमी से किया जाता है . ठीक ऎसी ही स्थिति पाइरेसी से संबंधित कानूनों को लेकर है. हाँलांकि पिछले कुछ समय से नैसकोम , बी एस ए ने एंटी पाइरेसी मुहिम छेड़ रखी है पर फिर भी बहुत कुछ किया जाना बांकी है .

अमित जी ने अपने ब्लौग पर मोबाइल से मच्छर भगाने के बारे में बताया.
“ड्रेगन फ़्लाई और चमगादड़ मच्छरों के पैदाईशी शत्रु होते हैं। यह सॉफ़्टवेयर फोन के
स्पीकर द्वारा दोनों ही की अल्ट्रासोनिक ध्वनि निकाल सकता है जिसे सुन मच्छर भाग खड़े होते हैं” .

लेकिन इस की उपयोगिता के बारे में संदेह है जैसे रवि जी ने अपनी टिप्पणी में कहा .

"परंतु क्या इससे सचमुच मच्छर भागते भी हैं? यदि 20 % भी मच्छर भागें तो यकीन मानिए मैं पांच पांच मोबाइल लेकर घूमूंगा. पिछले पांच बरस में सिर्फ और सिर्फ मलेरिया के कारण ही दस बार बीमार पड़ा!और, सागर भाई, क्या आपने भी अपनी इलेक्ट्रॉनिक मशीन जाँची है? एक दफ़ा मैंने अच्छी खासी मशीन खरीदी थी जो कि अल्ट्रा साउंड पैदा करती थी - तो बजाए मच्छर भगाने के, वो मच्छरों को अपनी ओर आकर्षित करती थी. एक कंप्यूटर प्रोग्राम भी डाउनलोड किया था जो कि आपके कम्प्यूटर के स्पीकर में मच्छर भगाऊ अल्ट्रासाउंड पैदा करता था. मगर उसके बाद दो बार मलेरिया हो गया. मच्छर भगाने की सबसे बढ़िया तरकीब किसी के पास हो तो बताएं!!!”
इस बारे में लेखक यानि मेरे भी अनुभव यही है कि इस प्रकार के उपकरण मच्छर भगाने में उतने कारगर नहीं होते. जहां तक बात है मलेरिया की तो इस में व्यक्ति की रोग प्रतोरोधात्मक क्षमता का भी हाथ है केवल मच्छरों का ही नहीं . सागर जी के पास भी लगता है कि कोई तरकीब है . वो कहते हैं
“अगर किसी मित्र को मच्छर भगाने के लिये छोटी सी इलेक्ट्रोनिक मशीन बनानी हो तो मेल करें मैं लिस्ट और बनाने का तरीका भेज दूंगा।रचनात्मकता का संतोष तो मिलेगा ही साथ ही मच्छर भी भाग जायेंगे।“
रचना जी ने अपनी मौसमी रचना में लिखा
“मेरे गांव मे ज्यादातर शादियां अप्रेल और मई की भीषण गर्मी होती है, जब वहां बिजली
और् पानी की समस्या अपने चरम पर होती है..और इसकी एकमात्र वजह यही होती है कि उस पारिवारिक जलसे मे परिवार की हर बेटी और बेटा (जो किसी मेट्रो शहर् मे मल्टीनेशनल कम्पनी के लिये पसीना बहा रहा होता है) शामिल हो सके.”
लेकिन नितिन जी इस से सहमत नहीं और वो कहते हैं .
" गांवों में ज्यादातर शादियाँ अप्रेल मई में इसलिये होती हैं, क्योंकि, कृषि आधारित समाज में वही एक वक्त होता है, जब व्यक्ति अपने काम से फुरसत पाता है। उस समय तक फसल कट चुकी होती है, उसे बेच कर पैसा भी आ जाता है (जो शादी में ही काम आता है), और अगली फसल की तैयारी में १-२ महीने का वक्त होता है…”
बात तो तार्किक लगती है भाई. रचना जी शादियों में महिलाओं की स्थिति पर लिखती हैं
“ शादी पर बेटियो‍ और बहुओ‍ को मौसम के बिल्कुल विपरीत भारी से भारी गहने और
भारी से भारी साडी पहननी होती है…और अगर उसका नन्हा सा ८-१० महीने का बच्चा है तो बेचारे का मां की साडी और गहनो से घायल होकर रो-रो कर बुरा हाल हो जाता है”
अब समीरलाल जी की बातें सुन लें इन्हे “कोहरे में धुंधला दिखता है” और इनकी पत्नी इन्हे फटकारती हैं . भाई कोहरे में तो सभी को धुंधला दिखता है इसमें अचरज कि क्या बात . लेकिन इनके डॉक्टर साहब बताते हैं कि
“ डॉक्टर बाबू बतलाते हैं,चिंता की यह बात नहीं है , बुढ्ढों के संग हो जाता है ,
डरने वाली बात नहीं है.”
अब बुड्ढा कौन हुआ ये या इनकी पत्नी या फिर बेचारा डॉक्टर ही . और? भाई सारे प्रेम-तरीके नॉलेज में होने से कोई युवा थोड़े हो जाता है लेकिन आप तो अभी जवान है “ भरी जवानी नस नस में है , दिल भी मेरा नाच रहा , मेरी प्रेम भरी कवितायें , बच्चा बच्चा बांच रहा.” और ये तो अधिकतर युवाओं की तरह तोड़ फोड़ मचाने की धमकी भी दे रहे हैं . तो ये तो चिर-युवा हैं ही बांकी का हमें नहीं मालूम . वैसे अनूप जी को इनकी बात पर शक है और हमें अनूप जी पर क्योंकि कभी वो मुग्धा नायिका की बात करते है कभी गतयौवना की .
“जैसे कोई गतयौवना अपने हुश्न के कसीदे काढ़ने लगती है ऐसे ही बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ता
कवि अपना जवानी आख्यान लिखना शुरू कर देता है."

मोहिन्दर कुमार जी अपने अनुभव कुछ यों रखते हैं.
"जबानी और बुढापे में बस ये फ़्रर्क होता है
वो कश्ती पार होती है, ये बेडा गर्क होता है"


कमल जी अपनी तकनीकी चिट्ठे में बताते हैं कि उनका कंप्यूटर और हिन्दी से बहुत पहले का नाता है.
"कंप्यूटर पर हिन्दी की जरूरत मुझे पड़ी सन 1996 में . मैं एक मैनुफेक्चरिंग कंपनी में काम करता था वहां हम लोग मजदूरों के लिये ट्रेनिंग मैनुअल बनाते थे जो कि हिन्दी में होते थे . ये सब उन दिनों बाहर से टाइप करवाने पड़ते थे. इसमें एक तो समय बहुत लगता था और फिर एक बार बनने के बाद उनको बदलना बहुत मुश्किल होता था .तो हम चाहते थे कि इसको कंप्यूटर में ले के आना . उस समय माइक्रोसोफट वर्ड उतना पॉपुलर नहीं था . हम लोग ‘एमि प्रो’ और ‘फ्री लांस ग्राफिक्स’ इस्तेमाल में लाते थे . उस समय किसी स्थानीय कंपनी से हमने कुछ सोफ्टवेयर लिया जो कि ‘रैमिंगटन क़ी बोर्ड’ पर चलता था. इसको इस्तेमाल करने मे काफी समस्या आती थी. अप्रेल 1998 (शायद) में चिप’ पत्रिका का पहला अंक आया था ( ये ‘चिप’ के ‘चिप-इंडिया’ बनने और ‘डिजिट’ के आने से काफी पहले की बात थी ) उसमें भारत-भाषा के प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी दी गयी थी और साथ में ‘शुशा’ फोंट भी थे . तब से ही में ‘शुशा’ फोंट इस्तेमाल करने लगा. बाद में संस्थान के लिये ‘अक्षर’ और ‘श्री-लिपि’ भी लिये जो आज भी कुछ विभागों में
सफलता पूर्वक चल रहे हैं. जहां तक अंतरजाल (वैब) पर हिन्दी की बात है मैने अपनी पहली हिन्दी साइट 1998 में बनायी थी.

इसी बात को सुन शैलेश जी की दिमागी नसें हिल गयी .
कमल जी, मेरे दिमाग की नसें हिल गईं। ऐसे-ऐसे तकनीकी टर्म हैं कि कुछ के बारे में सुना भी नहीं है। लेकिन आपमें निहित ऊर्जा से यह सुकून मिलता है कि आगे से सबकुछ पढ़ने को मिलेगा। मुझ, बेवकूफ की जानकारी बढ़ेगी। आपके बारे में पढ़ना सुखद रहा। आप कम्प्यूटर पर हिन्दी तबसे प्रयोग कर रहे हैं जब मैंने कम्प्यूटर नामक शब्द भी नहीं सुना था।
तरुण जी लता जी के दो गानों को बजा-बजवाकर परेशान हैं वे बताते हैं.
"लेकिन किसी हिन्दी गायक के मुँह से और वो भी लताजी जैसी गायक, थोड़ा अटपटा लगता है ना। आप में से किसी ने कभी क्या ये नोट किया? आप भी “हम आपके हैं कौन” का ये गीत ध्यान से सुनिये फिर बताईये, इस गाने में लता जी ने कहाँ कहाँ पर “स” को “श” कह कर बोला या गाया है। "


अफलू जी ने अपनी पोस्ट में लोहिया जी हवाले से बोला है .
इससे एक तामस भी जुड़ा हुआ है । शान्ति सतोगुण का प्रतीक है । लेकिन अगर शान्ति कहीं बिगड़ना शुरु हो जाये तो फिर वह तामस का रूप ले लिया करती है ।
वो आगे लिखते हैं.

हिन्दुस्तान की सभ्यता का यह मूलभूत आधार कभी नहीं भूलना चाहिए , कि नये काम मत करो , पुराने कामों को भुगतना ही पड़ेगा और जब कामों की श्रृंखला टूट जाएगी तभी
मोक्ष मिलेगा ।यहाँ मुझे सिर्फ इतना ही बताना है कि इन किस्सों की एक-एक तफ़सील
में ,एक-एक संवाद में , एक-एक बात में मजा भरा है । जरूरी नहीं कि इन किस्सों को आप सही समझें ।जरूरी नहीं है कि आप उसको धर्म मानें । उनको आप सिर्फ उपन्यास की तरह लें ,एक ऐसा उपन्यास जो दस - बीस - पचास हजार आदमिओं तक नहीं ,बल्कि जो करोड़ों लोगों तक ५ हज़ार बरसों से चला आया है , और पता नहीं , कब तक
चला जाता रहेगा

बेजी जी ने गाँधीजी के बंदरों के जरिये बहुत कुछ समझाने की कोशिश की .


गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,
बुरी बात पर दो मत कान,
कभी न बोलो कड़वे बोल।
याद रखोगे यदि यह बात ,
कभी नहीं खाओगे मात,
कभी न होगे डाँवाडोल ।
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
-बालस्वरूप राही

उनके गुजरात के सिविल अस्पताल के अनुभव अच्छे हैं .
भरूच ,गुजरात के सिविल अस्पताल में कार्यरत थी। सभी घायल अस्पताल के कैश्यौलिटी में से गुजरते थे।उनके धर्म का सही अंदाजा उस समय लगाना कठिन था। सभी के चेहरे पर समान सी दहशत.....। चेहरे पर चिन्ता जान की थी....और परिवार की। मदद करने वालों के घर्म का अंदाजा भी लगाना मुश्किल था। किस धर्म के व्यक्ति का खून कहाँ चढ़ रहा था बताना मुश्किल था। दुकाने सभी बंद थी....वजह कोई बंद का आह्वान नहीं था....अपने दुकान की चिन्ता थी। सभी परेशान थे....करीबन हर दूसरी चीज़ के लिए एक दूसरे पर आश्रित थे।


अच्छी लगी उनकी बात ...

अभी इतना ही ..बाँकी फिर..

6 टिप्‍पणियां:

Srijan Shilpi ने कहा…

यह तो आपने अच्छा किया, समीक्षा के लिए अलग चिट्ठा बनाकर। पहले समीक्षा का क्रम शुरु करने का आइडिया मेरा भी था अपने ब्लॉग पर, लेकिन जीतू भाई के कहने पर चिट्ठा चर्चा पर उसे शुरू करने का उपक्रम किया। शुभारंभ हो जाने के बाद भी व्यस्तता के कारण और ब्लॉग जगत के एक विवाद में खुद उलझ जाने के कारण वह क्रम चालू नहीं हो पाया। हालांकि आप यह समीक्षा वाला काम चिट्ठा चर्चा पर ही करते तो बेहतर रहता। मुझे याद आता है कि शायद आपने उसकी टीम में शामिल होने की इच्छा भी जताई थी। ख़ैर, कहीं भी करें, बस करते रहें। बल्कि इसे एक ग्रुप ब्लॉग भी बना सकते हैं और दूसरे लोगों को भी शामिल कर सकते हैं। लेकिन इसे चिट्ठा चर्चा के समानांतर प्रतिस्पर्धी प्रयास न समझ लिया जाए, इसका खतरा है।
तकनीकी, हास्य-व्यंग्य, समसामयिक, विविध जैसी श्रेणियों के लेखों को अलग-अलग छांटकर उनकी समीक्षा करने पर बेहतर तस्वीर उभर सकती है। मेरी तरफ से बधाई और शुभकामनाएँ!

काकेश ने कहा…

धन्यवाद शिल्पी जी टिप्पणी करने के लिये . कुछ बातें जो आपने उठायी उन पर अपने विचार दे दूं .

1. आपने कहा "यह समीक्षा वाला काम चिट्ठा चर्चा पर ही करते तो बेहतर रहता। मुझे याद आता है कि शायद आपने उसकी टीम में शामिल होने की इच्छा भी जताई थी" . इच्छा तो जतायी थी पर बात आगे बढ़ी नहीं :-) पर मेरा मानना है कि इस ब्लौग का उद्देश्य थोडा अलग है . इसमे अभी मैं केवल अपने पढ़े हुए लेखों की ही समीक्षा का प्रयास कर रहा हूं तो चुनाव मेरा होगा . चिट्ठा चर्चा में करते तो सब चिट्ठों को समेटने की औपचारिकता निभानी पड़ती . इसे जरूर ग्रुप ब्लौग बनाया जा सकता है आगे जो लोग इससे जुड़ना चाहें तो जुड़ सकते हैं .

2. " लेकिन इसे चिट्ठा चर्चा के समानांतर प्रतिस्पर्धी प्रयास न समझ लिया जाए, इसका खतरा है। " ..ये ऎसा प्रयास नहीं है और वैसे भी इस चिट्ठे का कोई प्रचार नहीं कर रहा र्हूं और ना ही करुंगा . इसीलिये इसे नारद में भी रजिस्टर्ड नहीं करवाया .

3. " तकनीकी, हास्य-व्यंग्य, समसामयिक, विविध जैसी श्रेणियों के लेखों को अलग-अलग छांटकर उनकी समीक्षा करने पर बेहतर तस्वीर उभर सकती है। " . ऎसा ही करने का विचार है .

एक समीक्षक और एक लेखक में अंतर होता है . समीक्षक को बिना किसी पूर्वाग्रह के अपनी बात को रख्नना होता . आशा करता हूं कि इस प्रयास में सफल रहुंगा. पुन: धन्यवाद .

मसिजीवी ने कहा…

विवादों के भय से आप नाहक ही पाठकों को इसके पठन के आनेद से वंचित कर रहे हैं...हमें तो पता लग गया है और फीडरीडर में डाल रहे हैं पर बंधु नए लोग बिना नारद कैसे पहँच पाएंगे।
मुझे नहीं लगता चिट्ठाचर्चा से कोई प्रतिस्‍पर्धा का प्रश्‍न है...होता तो भी जितने अधिक हों उतना अच्‍छा है। मैं चिट्ठाचर्चा भी करता हूँ और यह काम अब चिट्ठों की संक्ष्‍या की वजह से कठिन होता जा रहा है्...इस तरह की चर्चा उसे विस्‍तार देती है, अच्‍छी बात है। मैं खुद अंगेजी में(घटिया अंगेजी में) यह काम करता हूँ अपने दूसरे चिट्ठे पर।
हमारा साधुवाद...नारद पर पंजीकरण पर पुन: विचार करें।

रवि रतलामी ने कहा…

"...चिट्ठा चर्चा में करते तो सब चिट्ठों को समेटने की औपचारिकता निभानी पड़ती ..."

ऐसी तो कोई बाध्यता नहीं ही है! हर चिट्ठा-चर्चाकार अपनी मर्जी से और बहुत बार अपनी व्यक्तिगत पसंदगी से ही चर्चा करता है!

Tarun ने कहा…

वैसे अगर देखें तो सही मायने में चिट्ठा चर्चा ये ही है जिसमें सिर्फ लिंक नही दे रहे बल्कि कुछ चिट्ठों पर क्रिया प्रतिक्रिया भी बता रहे हैं थोड़ा विस्तार से। कुछ चिट्ठाकार चिट्ठाचर्चा में भी ऐसा ही करते हैं, लेकिन चिट्ठों की संख्या ज्यादा होने से थोड़ा दुश्कर हो जाता है वो काम। प्रतिस्पर्धा का तो सवाल नही होता क्योंकि आपका और चिट्ठाचर्चा का फार्मेट अलग अलग है।

लेकिन अगर आप भी चिट्ठाचर्चा की टीम में शामिल हो जायें तो अच्छा रहेगा, टीम वर्क में काम थोड़ा बंट भी जाता है। बाकि जैसी आपकी इच्छा चाहें तो यहीं चालू रहने दें।

एक और अच्छी पारी के लिये साधुवाद।

उन्मुक्त ने कहा…

अपनी पसन्द की चिट्ठियों के बारे में बताने का आइडिया अच्छा है। अक्सर जो चिट्ठियां नजरअंदाज हो जाती हैं उनके बारे में पता चल जाता है।